अगर देश के किसी भी विश्वविद्यालय में पढ़ाई को या पढ़ाई के एक हिस्से को ऑनलाइन कर दिया जाएगा, तो उसमें महिलाओं और वंचित शोषित जातियों के युवा सबसे पहले अवसरों से वंचित होंगे।
देश के अभिन्न हिस्से कश्मीर में इंटरनेट स्पीड 2जी ही रखी जा रही है। गांवों में बिना सरकारी फरमान के ही स्पीड कम रहती है।
उच्च शिक्षा को ऑनलाइन किया जाना इन सभी प्रकार के वंचितों शोषितों को समान अवसरों की उपलब्धता से ही वंचित कर देगा। यह नीतिगत और नैतिक दोनों तौर पर गलत है।
आपदा के वक्त वैकल्पिक निर्देशों की आड़ में तमाम विवादित आपत्तिजनक प्रावधानों को लागू किया जा रहा है. उसमें एक नई चुनौती बनकर सामने आई है-
दिल्ली विश्वविद्यालय ने हाल ही में निर्देश दिया कि वह अपने अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए ऑनलाइन ओपेन बुक इम्तेहान आयोजित कराएगा।
दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने एक सर्वे किया जिसमें लगभग पचास हज़ार छात्रों ने हिस्सा लिया। इसमें 85 फीसदी से अधिक बच्चे ऑनलाइन कक्षा, ऑनलाइन परीक्षा के लिए नकारात्मक जवाब दे रहे हैं।
जब दिल्ली विश्वविद्यालय की हक़ीकत ऐसी है, तो देश के बाकी हिस्सों में इंटरनेट के ज़रिए ‘अवसरों की समानता’ क्योंकर सुनिश्चित होगी। बिना गुरु के विश्व गुरु बनने की दिशा में यह एक गहरी साजिश है।
ऑनलाइन शिक्षा के खतरे
आज अगर ऑनलाइन कक्षाएं व परीक्षाएं करा ली गईं, तो इसे वैकल्पिक नहीं, स्थायी नीति बनाया जा सकता है। कैंपस व कक्षाओं की उपयोगिता ही खत्म कर दी जाएगी। जिन्होंने सदियों में पहली बार सामाजिक-सांस्कृतिक ‘कैदखानों’ को तोड़कर सार्वजनिक दायरों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ की, वे फिर से अपनी चारदीवारों में क़ैद कर दिए जाएंगे आत्मविश्वास छीनकर जिन्हें मानसिक तौर पर गुलाम बनाए रखा गया, उन महिलाओं और वंचितों के लिए ये प्रावधान विनाशक साबित होंगे।
आज भारत के विश्वविद्यालयों तक पहुंचने वालों की संख्या काफी कम है। उच्च शिक्षा में ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो 26 फीसदी ही है जो ज्यादातर देशों से कम है.. इनमें भी महिलाओं व दलित, पिछड़े, आदिवासी, पसमांदा जैसी वंचितों शोषितों की पहली पीढ़ी इन विश्वविद्यालयों की दहलीज़ तक आ सकी है।
ऐसे तमाम पाठ्यक्रम व कैंपस हैं, जिनमें आरक्षित वर्ग की अधिकांश सीटें अमूमन खाली रह जाती हैं। ऐसे में उस वंचित शोषित तबके तक तकनीकी की पहुंच क्योंकर हो सकेगी? उच्च शिक्षा को तकनीकी आधारित करना समानता के सिद्धांत की अवहेलना करते हुए वंचित शोषित तबके की पहली पीढ़ियों को भी सायास बेदखल कर देगी।
ऑनलाइन प्रावधान लाने की हड़बड़ी के पीछे क्या है वजह
भारत में सरकारी उच्च शिक्षा संस्थान पिछले कुछ दशकों से गहरे संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। सरकारें अपनी भूमिका खत्म करके इसे मुनाफा आधारित निजी उपक्रम बनाने पर आमादा है।
इसके पीछे वजह यह है कि नब्बे के बाद इन विश्वविद्यालयों का सामाजिक समीकरण तेज़ी से बदल रहा है। खासकर 2006 में केंद्रीय उच्च शिक्षा संस्थानों में 27% ओबीसी आरक्षण आने के बाद से तो विश्वविद्यालयों में वंचित जातियों के छात्रों की उपस्थिति काफी बढ़ गई है।
सामाजिक तौर पर वंचित शोषित तबके की पहली पीढ़ी का व्यवस्थित तौर पर उच्च शिक्षा में आना और उच्च शिक्षा को निजी पूंजी के हाथों सौंपने की नीतिगत शुरुआत, दोनों घटनाएं एक साथ शुरू हुईं, इन दोनों में कार्य-कारण संबंध के गहरे सूत्र मौजूद हैं।
भारत में उच्च शिक्षा का सार्वजनिक चरित्र लगातार कमजोर किया जा रहा है। वैश्विक संस्थानों के दबाव में पिछले कई दशकों से उच्च शिक्षा नीतिगत हमले का शिकार हो रही है।
हेफ़ा, मेटा यूनिवर्सिटी, फंडकट, सीटकट, विभागवार (13 प्वाइंट) रोस्टर जैसे प्रावधानों के ज़रिए यह अनवरत कोशिश जारी है। इन सभी प्रावधानों के पीछे अदृश्य साजिश कमोबेश एक ही है- वंचित शोषित तबके को उच्च शिक्षा से दूर करना।
जातिगत, आर्थिक, क्षेत्रीय व लैंगिक पहचानों के आधार पर सदियों से वंचित तबका सार्वजनिक उच्च शिक्षा तक पहुंच बनाकर समाज की स्थापित विभाजन प्रणालियों को ध्वस्त करता है। इससे अवसरों की समानता व हिस्सेदारी का संवैधानिक हक सुनिश्चित होता है।
उच्च शिक्षा निजी तौर पर ही नहीं, सामूहिक व सामुदायिक तौर पर भी आमूलचूल बदलावों का ठोस जरिया है। इसीलिए उच्च शिक्षा यथास्थितिवादी संकीर्ण मानसिकता के निशाने पर रहती है। इसी क्रम में आज उच्च शिक्षा पर सबसे गहरा हमला हो रहा है- उच्च शिक्षा के सार्वजनिक वित्त पोषित चरित्र को बदल कर उसे निजी ‘उद्योग’ में तब्दील कर देना।
ऐसे में कोविड-19 जैसी वैश्विक आपदा को ‘अवसर’ बनाने पर आमादा केंद्र सरकार अपनी इसी अदृश्य नीतिगत मंशा को लागू कर रही है।
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के ज़ाकिर हुसैन )