मुंबई: राकांपा (NCP) प्रमुख शरद पवार (Sharad Pawar) ने शनिवार को आरोप लगाया कि केंद्र ने भंडाफोड़ होने के डर से भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले की जांच को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपा है।
उन्होंने कहा अन्याय के खिलाफ बोलना नक्सलवाद नहीं है। ” मेरे ख्याल से सरकार को डर है कि उसका भांडा फूट जाएगा , इसलिए (मामले को एनआईए को सौंपने का) फैसला किया गया है.”
पवार ने एल्गार परिषद मामले में कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुणे पुलिस की कार्रवाई की जांच कराने के लिए पिछले महीने सेवानिवृत न्यायाधीश के नेतृत्व में विशेष जांच दल (एसआईटी) गठित करने की मांग की थी।
गौरतलब कि 1 जनवरी, 2018 को पुणे के भीमा-कोरेगांव में हिंसा हुई थी। जिसमे एक युवक मारा गया था। पुलिस ने इन दोनों मामलों की अलग-अलग एफआइआर दर्ज की थी।
पुणे पुलिस का मानना था कि यलगार परिषद में दिए गए भड़काऊ भाषणों के कारण ही भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़की थी। यलगार परिषद की जांच आगे बढ़ने पर इसके तार नक्सलवादियों से जुड़ते दिखाई दिए और अब तक इस मामले में 17 लोग गिरफ्तार किया गया। लेकिन गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबड़े की गिरफ्तारी अब भी नहीं हो सकी है।
महाराष्ट्र में सरकार बदलने के बाद इस मामले की पुन: जांच की मांग उठने लगी तो राकांपा अध्यक्ष शरद पवार ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिखकर यलगार परिषद मामले की पुन: जांच के लिए एसआइटी गठित करने की सिफारिश की।
अब अचानक एनआइए द्वारा इस मामले की जांच अपने हाथ में ले लेने से कांग्रेस-राकांपा दोनों स्तब्ध हैं। वह इसे संघीय व्यवस्था पर चोट बता रहे हैं।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भीमा-कोरेगांव मामले की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) द्वारा अपने हाथ में लेने को लेकर शनिवार को नरेंद्र मोदी सरकार पर निशाना साधा और आरोप लगाया कि नफरत के एजेंडे का विरोध करने वालों को ‘अर्बन नक्सल’ करार दिया जाता है। उन्होंने ट्वीट कर कहा कि जो भो मोदी-शाह के नफरत के एजेंडे का विरोध करता है, वह अर्बन नक्सल हो जाता है।
क्या है भीमा-कोरेगाँव का इतिहास ?
1 जनवरी सन् 1818 को भीमा कोरे गांव महाराष्ट्र की प्रसिद्ध लड़ाई उत्तरी पूर्वी पुणे स्थित कोरे गांव में भीमा नदी के किनारे क्रूर पेशवाई शासन से तंग आकर अपने सम्मान की रक्षा की खातिर अंग्रेजो की ओर से फर्स्ट रेजिमेंट ऑफ बांबे नेटिव इन्फैंट्री की दूसरी बटालियन तथा मद्रास आर्टलरी विरूद्ध बहुजन विरोधी शासक पेशवाओं के बीच लड़ाई लड़ी गई थी।
इस लड़ाई में 500 सैनिक थे जिसमें 450 महार सैनिक थे 50 अन्य सैनिक थे। जिसमें मात्र 200 घुड़सवार थे वाकी पैदल यानी इन्फैंट्री सेना थी।
जिन्होंने 8 किमी दूर की पद यात्रा कर भूखे शेर की तरह पेशवाओं के 20000 घुड़सवार और 8000 पैदल सेना को धरासायी कर दिया। जिसमें करीब 47 जांबाज महार सैनिक शहीद हो गए थे उनकी याद व सम्मान में अंग्रेजो द्वारा विजय स्तंभ स्थापित कर शहीदों की वीर गाथा के साथ उनके नाम भी लिखे है। यह एक ऐतहासिक लड़ाई थी।
ब्राह्मणों ने छुआछूत जबरन दलितों पर थोप दिया था और वो इससे नाराज़ थे . जब महारो ने ब्राह्मणों से इसे ख़त्म करने को कहा तो वे नहीं माने और इसी वजह से वो ब्रिटिश फ़ौज से मिल गए।
ब्रिटिश फ़ौज ने महारों को ट्रेनिंग दी और पेशवाई के ख़िलाफ़ लड़ने की प्रेरणा दी। मराठा शक्ति के नाम पर जो ब्राह्मणों की पेशवाई थी ये लड़ाई दरअसल, उनके ख़िलाफ़ थी और महारों ने उन्हें हराया. ये मराठों के ख़िलाफ़ लड़ाई तो कतई नहीं थी।
काम्बले कहते हैं कि महारों और मराठों के ख़िलाफ़ किसी तरह का मतभेद या झगड़ा था, ऐसा इतिहास में कहीं नहीं है।अगर ब्राह्मण छुआछूत ख़त्म कर देते तो शायद ये लड़ाई नहीं होती।
कहानी 201 साल पहले 1818 में हुए एक युद्ध से जुड़ी है। मराठा सेना यह युद्ध अंग्रेजों से हार गई थी। दावा किया जाता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी को महार रेजीमेंट के सैनिकों की बहादुरी की वजह से यह जीत हासिल हुई थी। ऐसे में यह जगह पेशवाओं पर महारों यानी अनुसूचित जातियों की जीत के एक स्मारक के तौर पर स्थापित हो गई।